जाति क्यों नहीं जाती? (यूनिवर्सिटी होस्टल में छात्रों के बीच संवाद)
जाति क्यों नहीं जाती?
(यूनिवर्सिटी होस्टल में छात्रों के बीच संवाद)
परिदृश्य:
यह चर्चा एक प्रतिष्ठित सरकारी यूनिवर्सिटी के होस्टल के कॉमन रूम में हो रही है, जहाँ विभिन्न राज्यों और सामाजिक पृष्ठभूमि से आए हुए छात्र रहते हैं। रात का समय है, और कुछ छात्र पढ़ाई से ब्रेक लेकर चाय के साथ चर्चा कर रहे हैं। आज का विषय अनौपचारिक रूप से शुरू होता है लेकिन जल्द ही एक गंभीर बहस में बदल जाता है।
(संवाद शुरू होता है)
राजीव (समाजशास्त्र का छात्र, चाय का घूंट लेते हुए): यार, आज क्लास में प्रोफेसर साहब ने कहा कि भारत में जाति अब खत्म हो रही है। तुम्हें क्या लगता है, सच में ऐसा है?
फैज़ (इतिहास का छात्र, व्यंग्यात्मक हँसी के साथ): हाँ, बिल्कुल! कागज़ों में तो जाति खत्म हो गई, लेकिन हकीकत में देखो—शादी-ब्याह से लेकर नौकरी तक, हर जगह जाति ही तय करती है कि कौन कितना ऊपर जाएगा और कौन नीचे रहेगा।
अंकिता (राजनीति विज्ञान की छात्रा, गहरी सोच में): मुझे लगता है कि क़ानूनी रूप से जाति का भेदभाव खत्म करने की कोशिश हुई है, लेकिन मानसिकता में बदलाव नहीं आया। अभी भी लोग अपनी जाति की पहचान से बाहर नहीं निकल पाए हैं।
अभिषेक (इंजीनियरिंग का छात्र, उत्सुकता से): लेकिन आजकल तो लोग खुद को जातिवाद से ऊपर मानते हैं। हमारे जैसे युवा क्या सच में जाति को इतनी अहमियत देते हैं?
राजीव: भाई, हम जितना भी "जाति खत्म हो गई" का नारा लगाएँ, लेकिन सच तो यह है कि हमारे समाज की पूरी संरचना जाति पर टिकी हुई है।
फैज़: हाँ, और सबसे मज़ेदार बात यह है कि लोग कहते हैं जाति खत्म हो गई, लेकिन जब शादी की बात आती है तो अचानक सबको अपनी जाति याद आ जाती है!
अंकिता: और सिर्फ शादी ही क्यों? नौकरियों में भी देखो, पॉलिटिक्स में देखो, हर जगह जाति का असर दिखता है।
अभिषेक: लेकिन क्या आरक्षण की वजह से भी जाति की पहचान मजबूत नहीं हुई है? अगर सबको समान मौके मिलते, तो शायद जातिवाद खत्म हो जाता।
(चर्चा गहरी होती है)
राजीव (गंभीर होते हुए): यही सबसे बड़ी गलतफहमी है! लोग सोचते हैं कि जाति सिर्फ आरक्षण की वजह से बची हुई है, लेकिन हकीकत यह है कि जातिवाद पहले से मौजूद था, आरक्षण तो सामाजिक असमानता को थोड़ा संतुलित करने की कोशिश है।
फैज़: सही कहा, भाई! जाति का असर देखना है तो गाँवों में जाओ, जहाँ आज भी लोग जाति के आधार पर पानी तक अलग-अलग कुओं से भरते हैं।
अंकिता: और सिर्फ गाँवों में ही नहीं, शहरों में भी! बड़े-बड़े कॉर्पोरेट्स में देखो, ऊँचे पदों पर कौन होता है? कौन से लोग बिज़नेस और पॉलिटिक्स में हावी हैं? जाति का असर हर जगह दिखता है।
अभिषेक: लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? हमें कोई समाधान भी तो निकालना होगा!
(शिक्षक प्रोफेसर मिश्रा जी भी चर्चा में शामिल होते हैं)
(इसी दौरान, यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर मिश्रा जी जो पास से गुज़र रहे थे, छात्रों की बातचीत सुनकर उनके साथ बैठ जाते हैं।)
प्रो. मिश्रा: मुझे खुशी हुई कि तुम लोग इस विषय पर गंभीरता से सोच रहे हो। पर एक सवाल पूछता हूँ— जाति खत्म क्यों नहीं होती?
अभिषेक: सर, शायद इसलिए क्योंकि इसे खत्म करने की कोशिश सही तरीके से नहीं हो रही।
अंकिता: या फिर इसलिए क्योंकि लोग जाति को अपनी पहचान मान चुके हैं और इसे छोड़ना ही नहीं चाहते!
प्रो. मिश्रा: सही कहा! जाति सिर्फ एक सामाजिक व्यवस्था नहीं है, यह सत्ता, संसाधनों और पहचान का भी सवाल है। जिनके पास सदियों से सत्ता रही, वे इसे छोड़ना नहीं चाहते, और जो हाशिए पर थे, वे अपनी पहचान बचाने के लिए मजबूर हैं।
राजीव: सर, लेकिन इसका हल क्या है? क्या जाति को पूरी तरह से मिटाया जा सकता है?
प्रो. मिश्रा: देखो, जाति एक दिन में खत्म नहीं होगी, लेकिन इसे कमजोर किया जा सकता है। इसके लिए तीन चीजें ज़रूरी हैं—
- शिक्षा और जागरूकता: हमें बचपन से ही यह सिखाया जाए कि इंसान की पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसका हुनर और इंसानियत होनी चाहिए।
- सामाजिक और आर्थिक समानता: जब तक संसाधनों का सही बँटवारा नहीं होगा, जातिवाद बना रहेगा। हर वर्ग को समान अवसर मिलने चाहिए।
- वैवाहिक और सामाजिक मेल-जोल: जब तक लोग अपनी जाति के बाहर रिश्ते नहीं बनाएँगे, तब तक जाति बनी रहेगी।
फैज़: मतलब, जाति को तोड़ने के लिए असली बदलाव समाज में नीचे से आना होगा, कानून से नहीं?
प्रो. मिश्रा: बिल्कुल! बदलाव सिर्फ कानून से नहीं, बल्कि लोगों की सोच से आएगा। जब लोग जाति को पहचान की बजाय भेदभाव का कारण मानना बंद कर देंगे, तब जातिवाद सच में खत्म होगा।
(बातचीत का निष्कर्ष)
(छात्र अब सोच में पड़ गए हैं, लेकिन उनके अंदर एक नई ऊर्जा भी आ गई है।)
राजीव: सर, हम अपने स्तर पर क्या कर सकते हैं?
प्रो. मिश्रा: सबसे पहले, तुम अपने दोस्तों, परिवार और समाज में इस पर चर्चा करो। दूसरे, जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव को पहचानो और उसका विरोध करो। और सबसे जरूरी बात—अपने व्यक्तिगत जीवन में जाति को महत्व देना बंद करो।
अंकिता: यानी, असली सवाल यह नहीं कि "जाति क्यों नहीं जाती?" बल्कि यह कि "हम जाति को जाने क्यों नहीं देते?"
प्रो. मिश्रा (मुस्कुराते हुए): यही तो असली क्रांति है! अगर तुमने अपनी सोच बदल ली, तो समाज भी बदलेगा। यही "भारतराष्ट्र" की परिकल्पना है—एक ऐसा भारत, जहाँ जाति नहीं, बल्कि काबिलियत और समानता महत्वपूर्ण हो।
(छात्र अब जोश में भर जाते हैं। वे तय करते हैं कि वे अपने स्तर पर जातिवाद के खिलाफ जागरूकता फैलाएँगे और अपने व्यवहार में जाति को अहमियत देना बंद करेंगे।)
निष्कर्ष:
यह चर्चा बताती है कि जाति सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि एक मानसिकता है, जो सत्ता, संसाधनों और सामाजिक ढाँचे से जुड़ी हुई है। इसे खत्म करने के लिए सिर्फ कानून नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव ज़रूरी है। अगर भारत को सशक्त बनाना है, तो हमें जाति को मानसिक और सामाजिक रूप से त्यागना होगा। यही "भारतराष्ट्र" की परिकल्पना का असली आधार होगा।
तो क्या आप भी जातिवाद को खत्म करने की दिशा में पहला कदम उठाने के लिए तैयार हैं? 🚀🔥
बहुत खूब
ReplyDeleteथैंक्स सर
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